हेलो दोस्तो! आप अपने साथी के आकर्षण का केंद्र बने रहने के लिए क्या कुछ नहीं करते हैं। वह आपकी ओर विशेष ध्यान दे और महत्व दे। इसके लिए आप अपनी हर छोटी-बड़ी बातों का खयाल रखने लगते हैं। कैसी पोशाक, कौन सा रंग, कैसी भाषा, कैसा हाव-भाव उन्हें अच्छे लगेगा इसका ध्यान हर समय बना रहता है। आपके इस प्रयास पर जब आपको प्रशंसा मिलती है तो आपकी खुशी की सीमा नहीं रहती। आपको लगता है, आप अपने साथी को समझने लगे हैं। उन्हें खुश रख सकते हैं। अपने व्यवहार, अपनी बुद्धि, अपनी समझदारी से उन्हें आनंद पहुंचा सकते हैं।
जब तक ये सारी कोशिशें सहज रूप से चलती रहती हैं तब तक किसी को कोई दिक्कत नहीं होती है। लेकिन जब यही सतर्कता जुनून बन जाए तो दोनों की सहज मित्रता पर असामान्यता के बादल मंडराने लगते हैं। अति सतर्क होकर एक साथी न केवल अपना मूल स्वभाव खो बैठता है बल्कि वह कई बार असहनीय सा लगने लगता है। सामने वाला उस नकली साथी में मूल व्यक्ति को ढूंढ़ता फिरता है। उसको अपनी तारीफ करने पर कोफ्त होने लगती है।
ऐसे ही एक जुनूनी दोस्त से परेशान हैं अमर (बदला हुआ नाम)। उनकी दोस्त शगुन (बदला हुआ नाम) अमर को इतना प्यार करती है कि उसकी हर बात को एक पाठ समझकर रट लेती है और बस उसको अपने जीवन में उतारने का जुनून पाल लेती है। उसके बाद वह अपने दोस्त का पूरा ध्यान अपनी उस आदत, व्यवहार या रूपसज्जा की ओर खींचना चाहती है। यदि किसी कारणवश अमर उस ओर ध्यान देना भूल जाता है तो शगुन का आत्मविश्वास डोलने लगता है। शगुन के व्यक्तित्व के इस बदलाव से अमर को बेहद चिढ़ सी होती जा रही है। उसे समझ नहीं आता कि वह अपनी दोस्त में पुरानी शगुन को कैसे वापस लाए।
आपका परेशान होना स्वभाविक है। आपने उस शगुन को जब पसंद किया था तब वह आपके नहीं बल्कि अपने हिसाब से जी रही थी। उसका जीवन के प्रति दृष्टिकोण, पहनावा, व्यवहार उसका अपना था। उसमें आपकी पसंद-नापसंद की कोई दखलअंदाजी नहीं थी। वह अपने अंदाज में जी रही थी और आप अपने। दोनों का जुदा अंदाज होते हुए भी उसमें कई मुद्दों पर समान सोच, समान पसंद ही रिश्ते में चार चांद लगाते थे यही आकर्षण का मूल मंत्र था। पर एक व्यक्ति अपनी स्वाभाविक सहजाता खो दे तो रिश्ते का मजा जाता रहता है। ऐसा लगता है मानो एक वयस्क किसी बच्चे से संवाद बना रहा है।
वयस्क रिश्ते में एक व्यक्ति चाहे जितना भी आत्मविश्वास से भरा क्यों न हो उसे भी अपने साथी से मानसिक सहयोग की जरूरत महसूस होती है। इसलिए दोनों व्यक्तियों का अपना-अपना मजबूत व्यक्तित्व होना जरूरी है। एक-दूसरे की पसंद-नापसंद का खयाल रखना, अच्छा लगना जरूरी है पर इसकी कीमत अपनी शख्सियत को खोकर नहीं करनी चाहिए। ऐसा करने से अंततः भला किसी का भी नहीं होने वाला है।
हां, दो लोग आपस में अवश्य ऐसा काम न करें जो बिल्कुल ही किसी को नागवार गुजरता हो। पर, जो बुनियादी स्वभाव है, उसे बिल्कुल ही अलविदा नहीं कर देना चाहिए। किसी के अति सतर्क हो जाने की आदत को खत्म करने के लिए उस पर विशेष ध्यान देना या टीका-टिप्पणी करना छोड़ देना चाहिए। हो सकता है, इस व्यवहार से सामने वाला दो-चार बार विचलित हो पर धीरे-धीरे उसका ध्यान इस ओर से हटता जाएगा। उसे जो अच्छा लगेगा वही वह करने लगेगा या लगेगी।
निजी बातों से विषय हटाकर केवल काम की बातों पर केंद्रित कर देनी चाहिए। काम के संदर्भ में भी अच्छी या बुरी तीखी प्रतिक्रिया से बचना चाहिए। ऐसा करने से सामने वाला, दूसरे की प्रतिक्रिया का ज्यादा परवाह करना छोड़ देता है और वह सहज, संतुलित व सामान्य व्यवहार करने लगता है।
कोई एक साथी यदि किसी भी कारण से अपनी साथी से अधिक प्रभावित हो या असुरक्षित महसूस करता हो तो ऐसे में दोनों को सावधान रहना चाहिए। जो व्यक्ति अपने साथी को खोने से डरता है वह अमूमन सामने वाले को खुश करने के लिए अपना मूल स्वभाव छोड़ने लगता है। ऐसे में कमजोर साथी को ज्यादा से ज्यादा भरोसा दिलाना चाहिए। उसे एहसास कराना चाहिए कि वह जैसा या जैसी भी है वही उसकी व्यक्तित्व की थ1.
जब तक ये सारी कोशिशें सहज रूप से चलती रहती हैं तब तक किसी को कोई दिक्कत नहीं होती है। लेकिन जब यही सतर्कता जुनून बन जाए तो दोनों की सहज मित्रता पर असामान्यता के बादल मंडराने लगते हैं। अति सतर्क होकर एक साथी न केवल अपना मूल स्वभाव खो बैठता है बल्कि वह कई बार असहनीय सा लगने लगता है। सामने वाला उस नकली साथी में मूल व्यक्ति को ढूंढ़ता फिरता है। उसको अपनी तारीफ करने पर कोफ्त होने लगती है।
ऐसे ही एक जुनूनी दोस्त से परेशान हैं अमर (बदला हुआ नाम)। उनकी दोस्त शगुन (बदला हुआ नाम) अमर को इतना प्यार करती है कि उसकी हर बात को एक पाठ समझकर रट लेती है और बस उसको अपने जीवन में उतारने का जुनून पाल लेती है। उसके बाद वह अपने दोस्त का पूरा ध्यान अपनी उस आदत, व्यवहार या रूपसज्जा की ओर खींचना चाहती है। यदि किसी कारणवश अमर उस ओर ध्यान देना भूल जाता है तो शगुन का आत्मविश्वास डोलने लगता है। शगुन के व्यक्तित्व के इस बदलाव से अमर को बेहद चिढ़ सी होती जा रही है। उसे समझ नहीं आता कि वह अपनी दोस्त में पुरानी शगुन को कैसे वापस लाए।
आपका परेशान होना स्वभाविक है। आपने उस शगुन को जब पसंद किया था तब वह आपके नहीं बल्कि अपने हिसाब से जी रही थी। उसका जीवन के प्रति दृष्टिकोण, पहनावा, व्यवहार उसका अपना था। उसमें आपकी पसंद-नापसंद की कोई दखलअंदाजी नहीं थी। वह अपने अंदाज में जी रही थी और आप अपने। दोनों का जुदा अंदाज होते हुए भी उसमें कई मुद्दों पर समान सोच, समान पसंद ही रिश्ते में चार चांद लगाते थे यही आकर्षण का मूल मंत्र था। पर एक व्यक्ति अपनी स्वाभाविक सहजाता खो दे तो रिश्ते का मजा जाता रहता है। ऐसा लगता है मानो एक वयस्क किसी बच्चे से संवाद बना रहा है।
वयस्क रिश्ते में एक व्यक्ति चाहे जितना भी आत्मविश्वास से भरा क्यों न हो उसे भी अपने साथी से मानसिक सहयोग की जरूरत महसूस होती है। इसलिए दोनों व्यक्तियों का अपना-अपना मजबूत व्यक्तित्व होना जरूरी है। एक-दूसरे की पसंद-नापसंद का खयाल रखना, अच्छा लगना जरूरी है पर इसकी कीमत अपनी शख्सियत को खोकर नहीं करनी चाहिए। ऐसा करने से अंततः भला किसी का भी नहीं होने वाला है।
हां, दो लोग आपस में अवश्य ऐसा काम न करें जो बिल्कुल ही किसी को नागवार गुजरता हो। पर, जो बुनियादी स्वभाव है, उसे बिल्कुल ही अलविदा नहीं कर देना चाहिए। किसी के अति सतर्क हो जाने की आदत को खत्म करने के लिए उस पर विशेष ध्यान देना या टीका-टिप्पणी करना छोड़ देना चाहिए। हो सकता है, इस व्यवहार से सामने वाला दो-चार बार विचलित हो पर धीरे-धीरे उसका ध्यान इस ओर से हटता जाएगा। उसे जो अच्छा लगेगा वही वह करने लगेगा या लगेगी।
निजी बातों से विषय हटाकर केवल काम की बातों पर केंद्रित कर देनी चाहिए। काम के संदर्भ में भी अच्छी या बुरी तीखी प्रतिक्रिया से बचना चाहिए। ऐसा करने से सामने वाला, दूसरे की प्रतिक्रिया का ज्यादा परवाह करना छोड़ देता है और वह सहज, संतुलित व सामान्य व्यवहार करने लगता है।
कोई एक साथी यदि किसी भी कारण से अपनी साथी से अधिक प्रभावित हो या असुरक्षित महसूस करता हो तो ऐसे में दोनों को सावधान रहना चाहिए। जो व्यक्ति अपने साथी को खोने से डरता है वह अमूमन सामने वाले को खुश करने के लिए अपना मूल स्वभाव छोड़ने लगता है। ऐसे में कमजोर साथी को ज्यादा से ज्यादा भरोसा दिलाना चाहिए। उसे एहसास कराना चाहिए कि वह जैसा या जैसी भी है वही उसकी व्यक्तित्व की थ1.
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